भक्तों की अभद्रता और आराध्यों का मौन

              

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हम दोनों के मध्य देशव्यापी असहिष्णुता को लेकर विमर्श चल रहा था। उसने आक्रोश व्यक्त किया, "विकास का एजेंडा कहकर आए थे, कुर्सी मिलते ही एजेंडे के विकास में लग गए। सवाल खड़े करो, तो भक्तगण जूते निकालते हैं। तार्किक आलोचना पर भी ऐसे फटते हैं जैसे गोले हों।"मैंने उसे समझाया, "ऐसे लोग गोले नहीं, ओले होते हैं। फसल की बर्बादी के लिए इन्हें गिरकर स्वयं का गलना तक स्वीकार रहता है।"
उसने खिन्नता प्रकट की, "असहमति के प्रति अशिष्टता करने पर क्या उनके आकाओं को उन्हें नहीं टोकना चाहिए?"
मैंने रामचरितमानस की अर्धाली से कार्यकर्ताओं के प्रति नेताओं का ऋण बोध उजागर किया-
रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करति सुरति सय बार हिए की।।
(प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती। वे उसे भूल जाते हैं और भक्तों की अच्छाई अर्थात् चुनाव के समय मिली हुई सेवाएं सौ-सौ बार याद करते रहते हैं)
वह बोला, "ऐसा क्यों हो रहा है कि विरोध को शत्रुता समझा जा रहा है। अभिव्यक्ति पर ताले जड़ने की कोशिशें की जा रही हैं। यह लोकतंत्र है?"
मैंने कहा, " यह लोकतंत्र नहीं, परलोकतंत्र है। अब चुनावों में जनप्रतिनिधि नहीं, आराध्य चुने जाने लगे हैं। और आराध्यों से कभी सवाल नहीं पूछे जा सकते। कोई सवाल पूछने का दुस्साहस करे भी, तो भक्तों को खुली छूट होती है कि वे मन, वचन, कर्म से उससे सीधे निपटें।"
वह झुंझलाया, "विडम्बना है कि स्त्री को मां व देवीस्वरूपा बताने वाले सोशल मीडिया पर स्त्रीविषयक अपशब्द कहते हैं। ऊपर से त्रासद यह कि अपने भक्तों की उद्दण्डता पर उनके आराध्य बोलते तक नहीं?"
मैंने उसे समझाया, "शास्त्र पढ़ो मित्र। आराध्य कभी बोलते नहीं हैं। हां, भक्तरंजन के लिए यदा-कदा आकाशवाणी कर, मन की बात करलें, सो उनकी कृपा।"
उसने उदाहरण देकर आराध्यों की दायित्वहीनता पर चोट की, "स्वयं को दांव पर लगाकर सत्य का समर्थन और असत्य का विरोध करने वाले विभीषण को रामभक्त तक 'घर का भेदी' कहते हैं। क्या मर्यादा पुरुषोत्तम को ऐसों को उनकी मर्यादा का भान नहीं करना चाहिए?"
मैंने उसे नीति और राजनीति का भेद समझाया, "बात तुम्हारी न्याय संगत होते हुए भी तर्क संगत नहीं है। तंत्र बहुमत से चलता है। एक विभीषण के बदले अनेक वानरों-भालुओं से पंगा लेकर कोई कब तक सिंहासनारूढ़ रह सकता है?"
वह झल्लाया, "तो क्या भक्तों का विरोधियों के प्रति दुर्व्यवहार और उनके आराध्यों की चुप्पी यथावत रहेगी?"
मैंने वार्तालाप का पटाक्षेप किया, "जब कोई एक बार किसी को अपना आराध्य मानकर उसका भक्त बन जाता है, तो उसका तन-मन उसका अपना कहां रह जाता है? भक्त के हाथ आराध्य के आगे जुड़ने के लिए, पांव उसकी परिक्रमा के लिए, नेत्र उसके दर्शन के लिए, कान उसकी महिमा श्रवण के लिए और जीभ हर घड़ी उसका नाम जपने के लिए रह जाते हैं।
और जब भक्त इतना समर्पित हो, तो आराध्य की स्वतः ही जिम्मेदारी बन जाती है कि हजारों ऐबों के बावजूद वह भक्त का संरक्षण करे। दुर्ग के कपाट तीखे-जहरीले कीलों को इसीलिए तो अपने तन पर स्नेहपूर्वक आमूलचूल धारे रहते हैं कि वे उनको छूने-खोलने वालों का भंजन करते रहें।"
उसने खिन्नता प्रकट की, "असहमति के प्रति अशिष्टता करने पर क्या उनके आकाओं को उन्हें नहीं टोकना चाहिए?"मैंने रामचरितमानस की अर्धाली से कार्यकर्ताओं के प्रति नेताओं का ऋण बोध उजागर किया-रहति न प्रभु चित चूक किए की।करति सुरति सय बार हिए की।।(प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती। वे उसे भूल जाते हैं और भक्तों की अच्छाई अर्थात् चुनाव के समय मिली हुई सेवाएं सौ-सौ बार याद करते रहते हैं)वह बोला, "ऐसा क्यों हो रहा है कि विरोध को शत्रुता समझा जा रहा है। अभिव्यक्ति पर ताले जड़ने की कोशिशें की जा रही हैं। यह लोकतंत्र है?"मैंने कहा, " यह लोकतंत्र नहीं, परलोकतंत्र है। अब चुनावों में जनप्रतिनिधि नहीं, आराध्य चुने जाने लगे हैं। और आराध्यों से कभी सवाल नहीं पूछे जा सकते। कोई सवाल पूछने का दुस्साहस करे भी, तो भक्तों को खुली छूट होती है कि वे मन, वचन, कर्म से उससे सीधे निपटें।"वह झुंझलाया, "विडम्बना है कि स्त्री को मां व देवीस्वरूपा बताने वाले सोशल मीडिया पर स्त्रीविषयक अपशब्द कहते हैं। ऊपर से त्रासद यह कि अपने भक्तों की उद्दण्डता पर उनके आराध्य बोलते तक नहीं?"मैंने उसे समझाया, "शास्त्र पढ़ो मित्र। आराध्य कभी बोलते नहीं हैं। हां, भक्तरंजन के लिए यदा-कदा आकाशवाणी कर, मन की बात करलें, सो उनकी कृपा।"उसने उदाहरण देकर आराध्यों की दायित्वहीनता पर चोट की, "स्वयं को दांव पर लगाकर सत्य का समर्थन और असत्य का विरोध करने वाले विभीषण को रामभक्त तक 'घर का भेदी' कहते हैं। क्या मर्यादा पुरुषोत्तम को ऐसों को उनकी मर्यादा का भान नहीं करना चाहिए?"मैंने उसे नीति और राजनीति का भेद समझाया, "बात तुम्हारी न्याय संगत होते हुए भी तर्क संगत नहीं है। तंत्र बहुमत से चलता है। एक विभीषण के बदले अनेक वानरों-भालुओं से पंगा लेकर कोई कब तक सिंहासनारूढ़ रह सकता है?"वह झल्लाया, "तो क्या भक्तों का विरोधियों के प्रति दुर्व्यवहार और उनके आराध्यों की चुप्पी यथावत रहेगी?"मैंने वार्तालाप का पटाक्षेप किया, "जब कोई एक बार किसी को अपना आराध्य मानकर उसका भक्त बन जाता है, तो उसका तन-मन उसका अपना कहां रह जाता है? भक्त के हाथ आराध्य के आगे जुड़ने के लिए, पांव उसकी परिक्रमा के लिए, नेत्र उसके दर्शन के लिए, कान उसकी महिमा श्रवण के लिए और जीभ हर घड़ी उसका नाम जपने के लिए रह जाते हैं।और जब भक्त इतना समर्पित हो, तो आराध्य की स्वतः ही जिम्मेदारी बन जाती है कि हजारों ऐबों के बावजूद वह भक्त का संरक्षण करे। दुर्ग के कपाट तीखे-जहरीले कीलों को इसीलिए तो अपने तन पर स्नेहपूर्वक आमूलचूल धारे रहते हैं कि वे उनको छूने-खोलने वालों का भंजन करते रहें।"    - Sampat Saral 

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